हम नाशनास-ए-राह थे सब से जुदा चले पर अपनी जुस्तुजू में ज़माने को पा चले अब कुछ नहीं है पास न ‘इबरत न इश्तियाक़ थी इक मता’-ए-होश सो वो भी गँवा चले तेरी कसाफ़तों से किसी को ग़रज़ न थी ऐ ज़िंदगी ये बार भी हम ही उठा चले अब रौशनी भी ज़ीस्त का मक़्सद नहीं रही जलता हूँ इस ग़रज़ से कि शायद हवा चले छू कर मुझे न देख कि ये मैं नहीं हूँ दोस्त इक बार मुझ को तोड़ कि मेरा पता चले ये कैसी चुप लगी है कि बुत बन गया हूँ मैं मायूस हो के मुझ से मिरे हम-नवा चले अंजान घाटियों का सफ़र और अँधेरी रात चलना हो जिस को साथ वो मेरे चला चले