क्यों कहा था वफ़ा-शि'आर मुझे अब है अपना ही इंतिज़ार मुझे मिल गए इतने ग़म-गुसार मुझे डस रही है भरी बहार मुझे है ख़िरद से भी अपना याराना है जुनूँ पर भी इख़्तियार मुझे बे-ख़ुदी तू ही दस्त-गीरी कर ज़िंदगी कर रही है ख़्वार मुझे सारे तूफ़ान हो चुके पसपा अब तो दरिया से पार उतार मुझे मैं हूँ ‘इरफ़ान-ए-ज़ात का शहकार क्यों किसी पर हो इंहिसार मुझे सर-बुलंदी मिरे ख़मीर में है मैं तिरा नक़्श हूँ उभार मुझे अपने बंदों से जिस को प्यार नहीं ऐसी दुनिया से क्यों है प्यार मुझे मैं जो तौबा करूँ गुनाहों से सब कहेंगे गुनाहगार मुझे बात अनोखी सही मगर 'साहिर' दर्द ही में मिला क़रार मुझे