ये ऐसे दर्द का लम्हा है भाई यहाँ हर शख़्स अफ़्सुर्दा है भाई सुलगती ख़्वाहिशों के पेड़ पर क्यों परिंदा कर्ब का बैठा है भाई हमारे और उस के दरमियाँ अब बस इक टूटा हुआ रिश्ता है भाई ज़माना कुछ कहे लेकिन ग़ज़ल में हमें तो सिर्फ़ सच लिखना है भाई यहाँ हर शख़्स मुझ से पूछता है सुकून-ए-दिल कहाँ मिलता है भाई नहीं है माल-ओ-दौलत पास 'साहिर' मगर इक ख़्वाब तो अपना है भाई