क्यों करते हो दुनिया की हर इक बात से तौबा मंज़ूर तो है मेरी मुलाक़ात से तौबा ज़ाहिद ने छुपाया है उसे गोशा-ए-दिल में भागी थी किसी रिंद-ए-ख़राबात से तौबा ये फ़स्ल अगर होगी तो हर रोज़ पिएँगे हम मय से करें तौबा कि बरसात से तौबा दुनिया की कोई बात ही अच्छी नहीं ज़ाहिद इस बात से तौबा कभी उस बात से तौबा मस्जिद नहीं दरबार है ये पीर-ए-मुग़ाँ का दरवाज़े के बाहर रहे औक़ात से तौबा ये 'दाग़'-ए-क़दह-ख़्वार के क्या जी में है आई सुनते हैं किए बैठे हैं वो रात से तौबा