क्यों ख़फ़ा रश्क-ए-हूर होता है आदमी से क़ुसूर होता है मय-ए-उल्फ़त से फिर गया जो दिल सूरत-ए-शीशा चूर होता है ख़ाक-ए-आशिक़ से जो दरख़्त उगा तूर होता है नूर होता है जिस को देखा वो इस ज़माने में अपने नज़दीक दूर होता है ख़ाकसारी वो है कि ज़र्रों पर रोज़ बारान-ए-नूर होता है किस की लेता नहीं ख़बर रज़्ज़ाक़ आलूदगी ना-सुबूर होता है ऐ हवस नान-ए-दाग़ बस न लगा गर्म तूफ़ाँ तनूर होता है कश्ती-ए-मय नहीं तो ऐ साक़ी बहर-ए-ग़म से उबूर होता है बाग़ में जाओ जाते हो जो 'नसीम' सुब्ह को वो ज़रूर होता है