क्यों ख़ौफ़ सा आता मुझे दीवार से दर से वो टूटा मकाँ अच्छा था इस काँच के घर से कुछ लोग अंधेरे में चले जानिब-ए-मंज़िल हम घर से निकलते ही नहीं धूप के डर से देता ही नहीं साथ बड़े वक़्त में कोई झड़ जाते हैं पत्ते भी ख़िज़ाँ में तो शजर से सच्चाई का दावा जो किया करते थे हर दम वो लोग भी ख़ामोश रहे मौत के डर से अफ़्सोस बहुत है कि ये पूरा नहीं उतरा उम्मीद बहुत रखी थी दुनिया ने बशर से ख़ुद मिट के ज़माने को उजाला ही दिया है सीखा है सबक़ हम ने यही शम-ए-सहर से जिस को न कोई रंज कोई ग़म न मिला हो गुज़रा ही नहीं ऐसा बशर मेरी नज़र से तुम वक़्त पे 'परवेज़' हर इक जब्र को रोको पानी न निकल जाए कहीं देखना सर से