क्यों न फिर शहर-ए-ख़मोशाँ में सदा दी जाए शम-ए-महफ़िल जो सर-ए-शाम बुझा दी जाए जब मिले आँख किसी से तो जला दी जाए है जो ये रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए लख़लख़ों से तो कभी होश नहीं आने का हो सके तो किसी दामन की हवा दी जाए हैरत-ए-चश्म-ए-गिला-मंद तो कुछ कर न सकी जू-ए-ख़ूँ आँखों से फिर क्यों न बहा दी जाए रौशनी के लिए क्यों तूर के मोहताज बनें दाग़-ए-दिल ही से न क्यों शम्अ जला दी जाए आइने गर्द-ए-कुदूरत से जो बद-बातिन हों क्यों न इख़्लास के छींटों से जिला दी जाए अक़्ल-ए-अय्यार का परहेज़ मुदावा है मरज़ दिल बड़े काम की शय है जो दवा दी जाए वो तो कहिए कि नहीं मा'रिफ़त-ए-अक्स-ए-जमाल आइना चूर हो गर बात बता दी जाए तूर तक आने की ज़हमत न गवारा हो अगर इक झलक पर्दा-ए-दिल ही से दिखा दी जाए वालिहाना निगह-ए-शौक़ जो उठ जाए कभी बे-गुनाही की ख़ता पर न सज़ा दी जाए हम ने माना कि तख़ातुब में है रुस्वाई मगर हर्ज क्या है जो निगाहों से सदा दी जाए हाँ गुनाहगार हूँ एलान-ए-हक़ीक़त कर के है मुनासिब जो सर-ए-दार सज़ा दी जाए जीते जी उस की गली से जो न उट्ठा 'नक़वी' है मुनासिब कि वहीं क़ब्र बना दी जाए