ला रहा है मय कोई शीशे में भर के सामने किस क़दर पुर-कैफ़ है मंज़र नज़र के सामने मैं तो इस आलम को क्या से क्या बना देता मगर किस की चलती है हयात-ए-मुख़्तसर के सामने फिर न देना ता'ना-ए-नाकामी-ए-ज़ौक़-ए-नज़र हौसला है कुछ तो आ जाओ नज़र के सामने आह ये रूदाद-ए-हंगाम-ए-तरब ऐ ग़म-गुसार ज़िक्र-ए-गुलशन जैसे इक बे-बाल-ओ-पर के सामने हो चुका जब ख़ात्मा सारी उमीदों का तो फिर जा रहे हो क्यूँ 'शकील' उस फ़ित्ना-गर के सामने