लाज़िम है लाएँ ढूँड कर ख़ुद को कहीं से हम क्या बे-नियाज़ हो गए दुनिया-ओ-दीं से हम महसूस हो रहा है हमें तुम से मिल के आज जैसे पहुँच गए हों फ़लक पे ज़मीं से हम दुनिया-ए-पुर-फरेब के अंदाज़ देख कर दिल यूँ बुझा कि हो गए ख़ल्वत-नशीं से हम उस जान-ए-आरज़ू से मुलाक़ात यूँ हुई मुद्दत के बाद जैसे मिले हों हमीं से हम इस हुस्न-ए-एतिक़ाद की मेराज देखना इक बुत को कह रहे हैं ख़ुदा किस यक़ीं से हम फिर आ गए हैं कूचा-ए-जानाँ में लौट कर निकले थे इक तवील सफ़र पर यहीं से हम सीखे कहाँ से तू ने ये अंदाज़-ए-दिलबरी जी चाहता है पूछ लें उस नाज़नीं से हम हम को क़दम क़दम पे जो देते रहे फ़रेब रखे हुए हैं आस अभी तक उन्हीं से हम फ़िक्र-ओ-नज़र को इश्क़ ने बख़्शी हैं वुसअ'तें तकते हैं आसमान की जानिब ज़मीं से हम अहल-ए-नज़र के सामने रखेंगे ये ग़ज़ल हासिल करेंगे दाद किसी नुक्ता-चीं से हम जिस अर्ज़-ए-पाक ने दिया 'महरूम' को जनम आए हैं ऐ 'बहार' उसी सरज़मीं से हम