इस दौर से ख़ुलूस मोहब्बत वफ़ा न माँग सहरा से कोई साया कोई आसरा न माँग पत्तों के क़हक़हों में सदा-ए-बुका न ढूँड जंगल में रह के शहर की आब-ओ-हवा न माँग समझौता कर के वक़्त से चुप-चाप बैठ जा क़ातिल से ज़िंदगी के अभी ख़ूँ-बहा न माँग अपने ख़ुदा से सिलसिला-ए-गुफ़्तुगू न तोड़ हो जाए जो क़ुबूल तो ऐसी दुआ न माँग जा अपनी लाश को कहीं जंगल में फेंक आ इस शहर के अमीर से दाद-ए-वफ़ा न माँग 'ख़ुसरव' सफ़ीर-ए-वक़्त से ग़म का मिज़ाज पूछ माज़ी की अज़्मतों का ख़ुशी का पता न माँग