लब चुप हुए तो दीदा-ए-तर बोलने लगे आँखों के अश्क बार-ए-दिगर बोलने लगे घबरा के तेरा नाम पुकारा था एक बार दामन से शब के नूर-ए-सहर बोलने लगे था ब'अद-ए-क़त्ल सारे इलाक़े में इक सुकूत फिर यूँ हुआ कि ज़ख़्म-ए-जिगर बोलने लगे लोगों के दर्द चुनने में खोया हो जब मसीह ऐसे में इक सलीब अगर बोलने लगे शह-सुर्ख़ियों में ज़िक्र न आया तो ये हुआ बस्ती के साथ क्या हुआ घर बोलने लगे ढलके ज़रा नक़ाब सर-ए-बज़्म रुख़ से जब उस पर ठिठक के सब की नज़र बोलने लगे रंगों की क्या बिसात कि तस्वीर हो सकें 'कौसर' तुम्हारे दस्त-ए-हुनर बोलने लगे