लब ओ दंदाँ का तुम्हारे जो है ध्याँ आठ पहर नहीं लगती मिरी तालू से ज़बाँ आठ पहर रविश-ए-सैर वो गुलशन में जो टुक जा बैठे बुलबुलें गुल के उठाया करें काँ आठ पहर दर से अब निकले वो क्यूँ उस को तो ये है मंज़ूर कि निकलती ही किसी की रहे जाँ आठ पहर क्यूँ-कि ख़ूँ-रेज़ रहे तेज़ न वो तेग़-ए-निगाह संग-ए-सुर्मा से चढ़ा करती है साँ आठ पहर कहते हैं सब तिरे आशिक़ को कि शायद ऐ वाए है गिरफ़्तार-ए-मुसीबत ये जवाँ आठ पहर दिल के लगने से ये देखा कि लगे रहते हम आह ख़ुद-बख़ुद मुज़्तरिब-उल-हाल नदाँ आठ पहर जिस का है ध्यान हमें उस को भी अपना है ख़याल वाए ग़फ़लत कि ये हम को है गुमाँ आठ पहर हुस्न-ए-ख़ूबी-ए-बुताँ कुछ न अदा हो ब-ख़ुदा कीजे गर लाख बरस तक ये बयाँ आठ पहर तुर्फ़ा उस जिंस-ए-मोहब्बत का भी सौदा देखा सूद में जिस के रहे ख़ौफ़-ए-ज़ियाँ आठ पहर जब से है हम से जुदा आह वो रश्क-ए-मह-ओ-महर मुँह लपेटे हैं बस और है यही ध्याँ आठ पहर रात को रात समझते हैं न हम दिन को दिन अपनी आँखों में है तारीक जहाँ आठ पहर इन दिनों आप में तुझ को कभी पाते ही नहीं किस का रहता है ये 'जुरअत' तुझे ध्याँ आठ पहर