लब-ए-जाँ-बख़्श के मीठे का तेरे जो मज़ा पाया तो चश्मा ज़िंदगी का अपनी लबरेज़-ए-बक़ा पाया न होए क्यूँ ब-सद जाँ दिल मिरा मफ़्तूँ तिरा जानाँ कि हर जल्वे में तेरे यक करिश्मा मैं जुदा पाया दो-बाला क्यूँ न हो नश्शा दिल-ए-हैराँ की हैरत का जो तुझ को सब में और तेरे में सब को बरमला पाया तिरी इक गर्दिश-ए-मिज़्गाँ से यूँ बे-ताब-ओ-ताक़त हूँ न कह सकता हूँ कुछ गर कोई पूछे तू ने क्या पाया न दुनिया उस में रह पावे न उक़्बा उस को फैलावे दिल-ए-'आगाह' के कौसर में जिन ने इंज़िवा पाया