वहशत का रंग बरसर-ए-पैकार फिर हुआ इक अक्स आइने से नुमूदार फिर हुआ दरपेश एक चश्मा-ए-ज़हराब था मगर दिल तिश्ना-लब था इस लिए मय-ख़्वार फिर हुआ फिर हँस पड़ा नज़र में गुल-पैरहन का चाक मौसम जुनूँ का बाइस-ए-आज़ार फिर हुआ सूरज ने वो सुलूक किया ज़िंदगी के साथ इंसान तीरगी का परस्तार फिर हुआ मुझ में सिमट के रह गईं दुनिया की वुसअ'तें उड़ने चला था मैं कि गिरफ़्तार फिर हुआ बस एक ही निगाह में गुम हो गए हवास 'नजमी' जो उस हसीन का दीदार फिर हुआ