लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता लखनऊ लालों के मादन से बदख़्शाँ होता ऐ परी तू वो परी है कि तिरी देख के शक्ल हर फ़रिश्ता की तमन्ना है कि इंसाँ होता रह गया पर्दा मिरा वर्ना तिरे जाते ही न ये दामन नज़र आता न गरेबाँ होता आ निकलता कभी ज़ाहिद जो तिरी महफ़िल में हाथ में शीशा-ए-मय ताक़ पे क़ुरआँ होता ख़ैर गुज़री जो खुले बालों को उस ने बाँधा वर्ना मजमूआ अनासिर का परेशाँ होता मर गया ज़ुल्फ़ की मैं पेच उठा कर ऐ 'बर्क़' क्यूँ न अफ़्साना मिरा ख़्वाब-ए-परेशाँ होता