लबों पर शेर आने में कहाँ अब देर लगती है ग़ज़ल कोई सुनाने में कहाँ अब देर लगती है फ़क़त आँखें मिलाने में कहाँ अब देर लगती है मोहब्बत को बढ़ाने में कहाँ अब देर लगती है ज़बाँ से बात निकली हो वो पूरी हो न हो साहब क़सम यूँही उठाने में कहाँ अब देर लगती है रिवायत हो गई अब तो मोहब्बत करने होने में किसी का दिल दुखाने में कहाँ अब देर लगती है ये तन्हाई उदासी अब मिरा मा'मूल है यारो दो-चार आँसू बहाने में कहाँ अब देर लगती है निहाँ बातें हों जितनी भी फ़क़त पक्का इरादा हो हक़ीक़त को दिखाने में कहाँ अब देर लगती है ज़रा सी आग भड़का कर जला दो ख़ुद को फिर उस में सभी सपने जलाने में कहाँ अब देर लगती है जहाँ जाना हो ना-मुम्किन मगर अब 'शोख़' जी हम को वहाँ पर आने-जाने में कहाँ अब देर लगती है