लबों पे आ के रह गईं शिकायतें कभी कभी तिरे हुज़ूर पड़ गईं ये उलझनें कभी कभी बस इक बिसात-ए-आरज़ू बिखर गई तो क्या हुआ उजड़ गई हैं महफ़िलों की महफ़िलें कभी कभी हज़ार बार हुस्न ख़ुद ही नादिम-ए-जफ़ा हुआ अगरचे इश्क़ ने भी कीं शिकायतें कभी कभी कभी कभी तिरी नज़र का आसरा भी मिल गया सिमट के रह गईं हैं ग़म की वुसअतें कभी कभी थीं दोनों सम्त ख़्वाहिशें ये फ़ैसला न हो सका भड़क उठें हम एक साथ या जलें कभी कभी