खड़ी है रात अंधेरों का अज़दहाम लगाए और एक रौशनी बैठी है अपना काम लगाए ये कम नहीं कि ख़रीदा उसी परी ने हमें अगरचे उस ने बहुत कम हमारे दाम लगाए मैं आफ़्ताब-ज़दा हूँ कहाँ है ज़ुल्फ़ उस की कि आए और मिरी आँखों पे अपनी शाम लगाए मैं आया काम किया अपना और चल भी दिया ज़माना बैठा रहा अपना ताम-झाम लगाए न जाने कितने ज़मानों की मुंतज़िर आँखें रह-ए-उमीद पे बैठी हुई हैं जाम लगाए चमन में उस ने लगाए हमारे नाम के फूल तो हम ने सफ़्हा-ए-हस्ती पे उस के नाम लगाए मगर मैं छूट गया मेरे ज़ोर-ए-दश्त की ख़ैर तमाम शहर रहा क़ुफ़्ल-ए-इंतिज़ाम लगाए हमारी बारी अब आनी है कूज़ा-गर से कहो कि रंग शोख़ करे ख़ूब ख़ाक ख़ाम लगाए मुलाज़मत जो मिली दफ़्तर-ए-फ़ना में मिली फिरे थे हम जो बहुत अर्ज़ी-ए-दवाम लगाए बना है शहर का सरमाया-कार यूँ 'एहसास' कि इक हलाल लगाने में सौ हराम लगाए