लबों पे मोहर-ए-ख़मोशी ज़बाँ पे ताला है ज़रूर फिर कोई तूफ़ान आने वाला है अगर ये थाम न लेती तो गिर पड़ा होता तुम्हारी याद ने मुझ को बड़ा सँभाला है किसी के चेहरे पे बिखरी हैं जा-ब-जा ज़ुल्फ़ें कहीं पड़ा है अंधेरा कहीं उजाला है अभी तो आगे बहुत इम्तिहान बाक़ी है अभी तो सिर्फ़ परिंदों ने पर निकाला है मिरे लिए तो यही इंतिज़ाम काफ़ी है कि मय-कदों में मिरे नाम का पियाला है उसी की ज़ात से है सारी काएनात में रंग उसी के हुस्न का दुनिया में बोल-बाला है अगर ज़मीर की क़िंदील हो गई रौशन तो फिर समझिए अंधेरे में भी उजाला है रहें चराग़ भला किस तरह 'ज़की' महफ़ूज़ हवाएँ ढूँड रही हैं कहाँ उजाला है