लड़ाई हो तो काग़ज़ की सिपर से कुछ नहीं होता तुम्हारी या किसी की चश्म-ए-तर से कुछ नहीं होता रगों में है अंधेरा तो ये रोज़-ओ-शब ही काफ़ी हैं हदीस-ए-ख़ैर से या हर्फ़-ए-शर से कुछ नहीं होता कोई साअ'त मुक़र्रर है कहीं इक मुस्तजाबी की कफ़-ए-अफ़्सोस से दस्त-ए-हुनर से कुछ नहीं होता उन्हें उन के हवारी हम-सुख़न बदनाम करते हैं तिरी अफ़्वाह से मेरी ख़बर से कुछ नहीं होता कड़े दिन कटते कटते भी सरों की फ़स्ल कटती है कि दश्त-ए-कर्बला में एक सर से कुछ नहीं होता मकान अपने मकीनों से हसीं और ख़ूबसूरत हैं फ़क़त आराइश-ए-दीवार-ओ-दर से कुछ नहीं होता जुनूँ को चाहिए इक तेशा-ए-आ'माल का मौसम यहाँ अल्फ़ाज़ के ज़ेर-ओ-ज़बर से कुछ नहीं होता बहुत बढ़ जाती है संजीदगी जब दोनों जानिब तो सिवा अफ़्सोस के हासिल सफ़र से कुछ नहीं होता 'कफ़ील' इक साएबाँ सर पर रहे माँ की दुआओं का मिरा नुक़साँ किसी हासिद नज़र से कुछ नहीं होता