लगा दिया मिरी वहशत ने सब ठिकाने से हवा तो डरती है अब ख़ाक तक उड़ाने से मिरी नज़र से हुआ इक ग़लत शिकार है वो ये तीर चूक गया था कभी निशाने से ये रक़्स उस की बदौलत है वहशतों का यहाँ वगर्ना कौन है वाक़िफ़ मिरे ठिकाने से तलाशता था बहाना वो क़ुर्ब का मेरे जो चाहता है बिछड़ना किसी बहाने से वही ठहरता है उन्वान काविशों का मिरी मैं उस को लाख भी रक्खूँ अलग फ़साने से नज़र के होते हुए कुछ नज़र नहीं आता ये मसअला है किसी के नज़र न आने से वो बे-वफ़ा भी है हिस्सा इसी ज़माने का गिला किया नहीं ये सोच कर ज़माने से