लगा के धड़कन में आग मेरी ब-रंग-ए-रक़्स-ए-शरर गया वो मुझे बना के सुलगता सहरा मिरे जहाँ से गुज़र गया वो यूँ नींद से क्यूँ मुझे जगा कर चराग़-ए-उम्मीद फिर जला कर हुई सहर तो उसे बुझा कर हवा के जैसा गुज़र गया वो वो रेत पर इक निशान जैसा था मोम के इक मकान जैसा बड़ा सँभल कर छुआ था मैं ने प एक पल में बिखर गया वो वो साथ मेरे था जैसे हर पल वो देखता था मुझे मुसलसल ज़रा सा मौसम बदल गया तो चुरा के मुझ से नज़र गया वो वो एक बिछड़े से मीत जैसा वो इक भुलाए से गीत जैसा कोई पुरानी सी धुन जगा कर वजूद-ओ-दिल में उतर गया वो वो दोस्त सारे थे चार पल के जो चल दिए हम-सफ़र बदल के 'सहाब'-ए-नादाँ वहीं खड़ा है उसी डगर पर ठहर गया वो