लगाए बैठे हैं मेहंदी जो मेरे ख़ूँ से पोरों में यही तो रहज़नों में हैं यही हैं दिल के चोरों में पड़े रहते हैं अक्सर सू-ए-मुश्कींं रू-ए-जानाँ पर बहुत देखा है हम ने इत्तिफ़ाक़ इन काले गोरों में लगाई आग उन के हुस्न-ए-आलम-सोज़ ने हर-सू जलाने चौ-लखा बैठे हैं यूँ कोरे सकोरों में वुफ़ूर-ए-सोहबत-ए-अग़्यार से कुछ ऐसे खुल खेले न वो झेपें हज़ारों में न शरमाएँ करोरों में हमें कू-ए-बुताँ से दो-क़दम उठने नहीं देती हमारी ना-तवानी इन दिनों है ऐसे ज़ोरों में अमाँ देता नहीं वो चाहने वालों को मर कर भी हमारे नाम को ज़ालिम ने पिटवाया ढिंढोरों में मिरे नालों का 'आशिक़' रंग उड़ाया अंदलीबों ने ख़िराम-ए-यार की शोहरत हुई सारे चकोरों में