लगे हुए हैं ज़माने के इंतिज़ाम में हम कभी ख़वास में शामिल कभी अवाम में हम पुकारते हैं बुतों को ख़ुदा के नाम से हम गुनाह करते हैं और कितने एहतिमाम में हम फिर उस का दख़्ल भी क्यूँ हो हमारे कामों में मुदाख़लत नहीं करते ख़ुदा के काम में हम पनाह माँगती है धार तेग़-ए-मा'नी की वो काट रखते हैं अलफ़ाज़-ए-बे-नियाम में हम अब आफ़्ताब से महताब बन गए होंगे नज़र न आएँगे लेकिन ग़ुबार-ए-शाम में हम निगाह उस की मिरी सम्त चेहरा और तरफ़ सो चूक जाते हैं अंदाज़ा-ए-सलाम में हम मिरी नमाज़ की रफ़्तार पर नज़र रक्खो रुकू-ओ-सजदे में हैं और न हैं क़याम में हम सभी समाअ'तें आँखों को खोल कर रखें चमक उठेंगे अचानक किसी कलाम में हम अचानक आते हैं गिर्दाब जैसे दरिया में इक इंक़लाब की आँखें लिए अवाम में हम ख़ुद अपने जिस्म की बे-हुरमती भी करते रहे फ़ना भी होते रहे कोशिश-ए-दवाम में हम हमें भी दख़्ल है कुछ कार-गाह-ए-आलम में हर एक काम के बाहर हर एक काम में हम हमारा नाम तो है क़ैस-ए-साकिन-ए-सहरा पुकारे जाते हैं 'एहसास' उर्फ़-ए-आम में हम