लगता है ज़िंदा रहने की हसरत गई नहीं मर के भी साँस लेने की आदत गई नहीं शायद कि रच गई है हमारे ख़मीर में सौ बार सुल्ह पर भी अदावत गई नहीं आना पड़ा पलट के हुदूद ओ क़ुयूद में छोड़ी बहुत थी फिर भी शराफ़त गई नहीं रहती है साथ साथ कोई ख़ुश-गवार याद तुझ से बिछड़ के तेरी रिफ़ाक़त गई नहीं बाक़ी है रेज़े रेज़े में इक इर्तिबात सा यासिर बिखर के भी मिरी वहदत गई नहीं