लहरों के मुसाफ़िर थे किनारों के मकीं थे हम तीरा-नवर्द ऐसे कि सुब्हों के मकीं थे अश्कों के लिबादे में निकल आए थे घर से कुछ ख़्वाब परेशान सी आँखों के मकीं थे कुछ लोग क़बीलों की रिवायात से निकले वो लोग जो संगलाख़ ज़मीनों के मकीं थे इस शहर ने फ़ितरत पे बड़ा ज़ुल्म किया है इक चाँद था कुछ फूल जो झीलों के मकीं थे जिद्दत भरी दुनिया में खड़े सोच रहे हैं तब ख़ूब थे जब हम सभी ग़ारों के मकीं थे हम लोग सितारों को समझते रहे 'साबिर' हम ऐसे कि गुम-गश्ता जज़ीरों के मकीं थे