लहू दे कर जिला बख़्शेंगे ऐ उर्दू ज़बाँ तुझ को कभी मिटने नहीं देंगे ये तेरे पासबाँ तुझ को जहाँ के गोशे गोशे में ये तेरे चाहने वाले सदा महफ़ूज़ रखेंगे समझ कर जिस्म-ओ-जाँ तुझ को अदब के दाएरे में रह के अक्सर पेश करते हैं कहीं शीरीं-ज़बाँ तुझ को कहीं शो'ला-बयाँ तुझ को तिरी वुसअ'त का अंदाज़ा लगा सकता नहीं कोई बजा कहते हैं जो कहते हैं बहर-ए-बे-कराँ तुझ को तिरे अशआ'र सुन कर महव-ए-हैरत हैं जहाँ वाले ऐ 'सैफ़ी' रास जब से आ गई उर्दू ज़बाँ तुझ को