कितना आगे निकल गया हूँ मैं ग़म के साँचे में ढल गया हूँ मैं जल रहा था मकान उस का मगर मैं ये समझा कि जल गया हूँ मैं आप अपने पे पड़ गई जो नज़र ख़ुद ही हँस कर बहल गया हूँ मैं वो कि महलों में बे-क़रार रहा दश्त-ओ-सहरा में पल गया हूँ मैं चलते चलते वफ़ा की राहों में गिरते गिरते सँभल गया हूँ मैं गर्मी-ए-ज़ीस्त जब बढ़ी 'सैफ़ी' बर्फ़ जैसा पिघल गया हूँ मैं ख़ाक-पा-ए-रसूल ऐ 'सैफ़ी' अपनी आँखों से मल गया हूँ मैं