लहू गिरे तो करें वाह काँच के टुकड़े हमारे पाँव के हमराह काँच के टुकड़े चलें जो एक पे तो दूसरा झुका ले सर हमारे दर्द से आगाह काँच के टुकड़े निकल रहे हैं सभी बच के पर उठाते नहीं पड़े हुए हैं सर-ए-राह काँच के टुकड़े नहीं नहीं उसे उन का सितम नहीं कहिए हमारे ज़ख़्म की हैं चाह काँच के टुकड़े समझ गया वो सबब मेरे लड़खड़ाने का कि मेरे होंटों पे था आह काँच के टुकड़े कभी जिगर में कभी आँख में कभी दिल में 'ज़िया' ने रक्खे हर इक गाह काँच के टुकड़े