लहू जला के उजाले लुटा रहा है चराग़ कि ज़िंदगी का सलीक़ा सिखा रहा है चराग़ वुफ़ूर-ए-शौक़ में लैला-ए-शब के चेहरे से नक़ाब-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ उठा रहा है चराग़ हमारे साथ पुराने शरीक-ए-ग़म की तरह अज़ाब-ए-हिज्र के सदमे उठा रहा है चराग़ ये रौशनी का पयम्बर है इस की बात सुनो सदाक़तों के सहीफ़े सुना रहा है चराग़ शब-ए-सियाह का आसेब टालने के लिए तमाम उम्र शरीक-ए-दुआ रहा है चराग़ हवा-ए-दहर चली है बड़ी रऊनत से दयार इश्क़ में कोई जला रहा है चराग़ वो हाथ भी यद-ए-बैज़ा से कम नहीं 'आजिज़' जो ख़ाक-ए-अर्ज़-ए-वतन से बना रहा है चराग़