लहू को पालते फिरते हैं हम हिना की तरह बदल गए हैं मज़ामीं तिरी वफ़ा की तरह हम ऐतबार-ए-वफ़ा का गुमाँ करें भी तो क्या वो आज सूरत-ए-गुल हैं तो कल सबा की तरह उसे तो संग-ए-रऊनत ने कर दिया घायल मैं टूट टूट गया शीशा-ए-अना की तरह झटक के ले गया भीगी रुतों के इम्कानात निकल गया मिरे सहरा से फिर हवा की तरह कभी खुले भी दर-ए-मुस्तजाब-ए-चारा-गराँ बहुत दिनों से तही-दस्त हूँ दुआ की तरह असा छिना है तो कासा भी ले उड़ा कोई नवा नवा हूँ सर-ए-शहर-ए-जाँ-गदा की तरह लगी है शहर में इक भीड़ मरने वालों की ये किस ने डाली है मक़्तल में ख़ूँ-बहा की तरह कहीं तो उस के मरासिम में झोल था तारिक़ वगर्ना हम से न मिलता वो आश्ना की तरह