लहू-लुहान था शाख़-ए-गुलाब काट के वो हुआ हलाक चटानों के ख़्वाब काट के वो मैं गुज़रे वक़्त के किस आसमाँ में जीता हूँ गया कभी का हवा की तनाब काट के वो इसी उमीद पे जलती हैं दश्त दश्त आँखें कभी तो आएगा उम्र-ए-ख़राब काट के वो हुए हैं ख़ुश्क भरी दोपहर कई दरिया इस आरज़ू में कि रख दे सराब काट के वो गुज़िश्ता शब से जज़ीरे में वारदात नहीं भँवर को ले गया यूँ ज़ेर-ए-आब काट के वो