लाख पर्दे से रुख़-ए-अनवर अयाँ हो जाएगा पर्दा खुल जाएगा हर पर्दा कताँ हो जाएगा जौहर-ए-तेग़-ए-इसालत सब अयाँ हो जाएगा इम्तिहाँ के वक़्त अपना इम्तिहाँ हो जाएगा तू अगर ऐ माह आ निकला किसी दिन बाद-ए-मर्ग पर्दा-ए-ख़ाक-ए-मज़ार अपना कताँ हो जाएगा पेच ज़ुल्फ़ों के जो खुल जाएँगे रू-ए-यार पर सुंबुल-ए-तर आतिश-ए-गुल का धुआँ हो जाएगा तू वो गुल-रू है कि तुझ को देख कर निकलेगी जान बुलबुल-ए-रूह ओ रवाँ बे-आशियाँ हो जाएगा रू-ए-रंगीं की हिकायत नज़्म अगर करने लगें 'बर्क़' सब दीवाँ हमारा बोस्ताँ हो जाएगा