लाख तेरी ही तरह क्यों न पराया होता तुझ सा कोई तो मिरे ध्यान में आया होता वक़्त के साथ तो चलता है ज़माना सारा वक़्त के साथ मिरी तरह निभाया होता मैं तिरे शहर में तन्हा हूँ न जाने कब से तू न होता तिरी दीवार का साया होता खिलखिलाते हुए लम्हों से लिपटने वालो रूठने वाली रुतों को भी मनाया होता यूँ तो हर एक शबिस्ताँ है मुनव्वर तुझ से कभी मेरा भी कोई ख़्वाब सजाया होता ले गया साथ उड़ा कर मेरी नींदें 'पर्वाज़' ध्यान में काश न वो शख़्स समाया होता