कभी पुकार के देखा कभी बुलाए तो हुदूद-ए-ज़ात से आगे निकल के आए तो पिला रहा है निगाहों को तीरगी का लहू फ़सील-ए-जाँ पे वो कोई दिया जलाए तो सजाए रक्खूँगी अपने गुमान की दुनिया मिरे यक़ीन की मंज़िल पे कोई आए तो ये आँखें नींद को तरसी हुई हैं मुद्दत से वो ख़्वाब-ज़ार-ए-शबिस्ताँ कोई दिखाए तो ग़ुरूर इश्क़ के आदाब सीख जाएगा कभी वो रूठ के देखे कभी मनाए तो हवा की चाप में शामिल हैं आहटें उस की सलीक़ा दिल को धड़कने का भी सिखाए तो