लम्हा लम्हा फैलती जाती है रात क़तरा क़तरा ज़हर टपकाती है रात मुस्कुरा कर साथ हो लेता है दिन जब भी तन्हा छोड़ कर जाती है रात तेरी क़ुर्बत की मुलाएम धूप को साथ बिस्तर पर भी ले आती है रात क़ब्ल इस के लौट कर आऊँ मैं घर जिस्म से उस के लिपट जाती है रात दिन खड़ा है हाथ में ख़ंजर लिए जाते जाते ये बता जाती है रात