लम्हे लम्हे की हर इक रद्द-ओ-बदल का मर्सिया क्या हमें कहना पड़ेगा अब ग़ज़ल का मर्सिया हाए ये कैसी सदी में कह रहे हैं हम ग़ज़ल जो सदी पढ़ती है ख़ुद इक एक पल का मर्सिया कल जो दुनिया में हुए हम जैसे कुछ हस्सास लोग आज के अशआ'र कहलाएँगे कल का मर्सिया जो भी ज़द में आया वो आँसू बहाएगा फ़क़त मसअले बन जाएँगे जब अपने हल का मर्सिया काश ये भी सोचते पत्थर उठाने वाले हाथ लिखते लिखते थक न जाएँ पेड़ फल का मर्सिया ऐ ख़ुदा हम को तू ऐसे हर अमल से बाज़ रख उम्र भर पढ़वाए जो रद्द-ए-अमल का मर्सिया आज तक भूले न हम 'शाहिद' तो भूलेंगे भी क्या ता-क़यामत सब्र के नेमुल-बदल का मर्सिया