मेहमान कोई बन के जो आए कभी कभार बस जाए दिल की उजड़ी सराए कभी कभार इंसान हैं हमें भी ज़रूरत है प्यार की कोई गले हमें भी लगाए कभी कभार बादल को अपने सारे फ़राएज़ अगर हैं याद सहरा की प्यास भी वो बुझाए कभी कभार अब रौशनी में आएँ तो आएँ भी कैसे हम क़द नापते हैं अपने ही साए कभी कभार दिल मानने पे लाख ना तय्यार हो कभी अहबाब फिर भी देते हैं राय कभी कभार मरहम नसीब ही ना हुआ जिन को आज तक हम ने कुछ ऐसे ज़ख़्म भी खाए कभी कभार 'शाहिद' ने जिस के नाम कभी की थी ज़िंदगी 'शाहिद' का वो भी साथ निभाए कभी कभार