लम्हों के परिंदे हैं लिए चोंच में कंकर सहमा सा डरा सा है खड़ा ज़ीस्त का लश्कर इक फूल लब-ए-दरिया जो डाली से गिरा था पानी में गया जानिए किस सम्त वो बह कर चुभता है हर इक लम्हा जो इक ख़ार की सूरत आँखों से मिरी छीन ले अब कोई वो मंज़र सच ये भी कि दुश्वार है रस्ता तिरे घर का सच ये भी कि रस्ते में है दरिया न समुंदर तलवार लिए लोग मिरे घर में खड़े थे मिट्टी का 'सबा' फ़र्श पे टूटा था कबूतर