क़दमों तले तू देख के मुझ को न तंज़ कर साया हूँ दिन ढला तो मैं हूँगा तवील-तर इक चीख़ दब के रह गई नारों के शोर में आगे जुलूस बढ़ गया इक लाश रौंद कर डरता हूँ सुन के सुब्ह के क़दमों की आहटें मैं एक ज़र्द रात का हूँ आख़िरी पहर चारों तरफ़ है आग तआ'क़ुब में आप के बेहतर यही है जाइए दरिया में अब उतर 'इकराम' एक दर्द का इस दिल में है निवास आबाद एक संत के दम से है ये खंडर