लौ मिरे दिल ने ज़रा उस से लगाई ही नहीं मैं ने चाहत की कभी जोत जगाई ही नहीं रौशनी रूह तक आई है तो आई कैसे जब कि उस तक तो मिरी कोई रसाई ही नहीं अपनी रौ में हूँ बहे जाती हूँ नद्दी की तरह पत्थरों को मैं कभी ध्यान में लाई ही नहीं कैसे बन जाते हैं सब काम ये बिगड़े मेरे एक नेकी तो अभी मैं ने कमाई ही नहीं ख़ुद-ब-ख़ुद झुक गईं दर पर तिरे नज़रें मेरी ये निगह मैं ने कहीं और झुकाई ही नहीं कैसे चुप-चाप चले आते हैं नींदों में मिरी मैं ने ख़्वाबों को तो आवाज़ लगाई ही नहीं उस की उम्मीद अभी से मैं लगा लूँ कैसे अपनी हस्ती तो अभी मैं ने मिटाई ही नहीं