लौह-ए-इम्कान पे हस्ती का भरम खुलता है जाने कब उक़्दा-ए-मौजूद-ओ-अदम खुलता है रंग-ओ-आहंग भी होते हैं वहाँ दस्त दराज़ उस परी-ज़ाद का जब बाब-ए-करम खुलता है शाम होते ही यहाँ आमद-ए-महताब के साथ ख़ाना-ए-दिल में तिरी याद का ग़म खुलता है हम कोई बात तयक़्क़ुन से नहीं कह सकते हम पे असरार-ए-ज़माना अभी कम खुलता है यूँ बिखरते हैं ख़यालों में तिरे हुस्न के रंग दश्त पर जैसे किसी अब्र का नम खुलता है ख़तरा-ए-जाँ है रह-ए-इश्क़ में लेकिन 'मुख़्तार' राह-ए-दुश्वार पे चलने से क़दम खुलता है