वक़्त-ए-रुख़्सत हर इक बात रोने लगी आख़िरी थी मुलाक़ात रोने लगी सर झुकाए अँधेरों की आग़ोश में जाने क्यों रात-भर रात रोने लगी जुस्तुजू ज़िंदगी को तबस्सुम की थी देख कर तल्ख़ हालात रोने लगी अस्प-ओ-फ़र्ज़ीं गए शुतुर भी न रहे खा के पैदल से शह मात रोने लगी दर से मुनइ'म के साइल को कुछ न मिला ख़ाली दामन पे ख़ैरात रोने लगी रहज़नों के सितम ज़ुल्म को देख कर अब कमीं-गाह में घात रोने लगी बे-गुनाही थी चेहरों से उन के अयाँ क़ैदियों पर हवालात रोने लगी नर्मदा ताप्ती में लहू देख कर गुल-फ़िशाँ ख़ाक-ए-गुजरात रोने लगी हर क़दम साज़िशें क़त्ल-ओ-ग़ारत-गरी अज़्मत-ए-हिन्द हैहात रोने लगी बुग़्ज़-ओ-नफ़रत के सैलाब में ग़ोता-ज़न गंगा-जमनी मुसावात रोने लगी सर मताफ़-ए-हरम में झुका जब कभी लब पे 'साख़िर' मुनाजात रोने लगी