लौट कर जैसे दौर-ए-शबाब आ गया आप क्या आ गए इंक़लाब आ गया इस तरह दिल के अरमान पूरे हुए नामा-बर ले के ख़त का जवाब आ गया देखने को तरसती थीं आँखें जिसे सामने वो मिरे बे-हिजाब आ गया गुलशन-ए-दिल पे इक ताज़गी छा गई बन के वो इक मुजस्सम गुलाब आ गया आलम-ए-ख़्वाब में जिस को पढ़ता था मैं रू-ए-ज़ेबा की ले कर किताब आ गया जिस के जाने से तारीक थी ज़िंदगी ख़ाना-ए-दिल में बा-आब-ओ-ताब आ गया ज़ेहन माऊफ़ था गिनते गिनते जिसे आज 'बर्क़ी' वो रोज़-ए-हिसाब आ गया