लौटते वक़्त की बे-कैफ़ थकन को भूलें किस के घर जाएँ कि उस वा'दा शिकन को भूलें सहमी आँखों के सवालों की तपन याद रखें थरथराते हुए होंटों की कपन को भूलें गर्म साँसों की जलन सर्द सी आहों की तपन कैसे मुमकिन है कि उस शो'ला बदन को भूलें शे'र कहने ही नहीं देती हैं यादें तेरी तुझ को भूलें तो ये ऐसा है कि फ़न को भूलें हम वफ़ा-केश हैं मेरे दिल-ए-अंदेशा-शनास इक तिरे ख़ौफ़ से क्या अपने चलन को भूलें मुस्कुराते ही जहाँ फूल खिले जाते हूँ मरना बेहतर है जो उस शोख़-बदन को भूलें