लाए तो नक़्द-ए-जाँ सर-ए-बाज़ार क्या कहें हर शख़्स है उसी का ख़रीदार क्या कहें इक दास्तान-ए-तेशा हर इक संग-ओ-ख़िश्त है क्यूँ बोलते नहीं दर-ओ-दीवार क्या कहें उस की गली से फेर के ले आए जान-ओ-दिल कितना है ज़िंदगी से हमें प्यार क्या कहें दुश्मन हुए हैं अपने हुए जब से उस के दोस्त ख़ुद को कहें दिवाना कि होश्यार क्या कहें हम भी वही हैं तुम भी वही शहर भी वही हाइल मगर है वक़्त की दीवार क्या कहें साज़-ए-शिकस्त-ए-दिल तो सदा से ख़मोश है होता है कैसे शे'र में इज़हार क्या कहें