लज़्ज़त-अंदोज़-ए-ख़लिश हूँ सोज़न-ए-तक़दीर का

लज़्ज़त-अंदोज़-ए-ख़लिश हूँ सोज़न-ए-तक़दीर का
सी रहा हूँ चाक अपने दामन-ए-तदबीर का

मुस्कुरा कर इस तरफ़ चिलमन को जुम्बिश दे गई
ज़र्रा-ज़र्रा हिल गया याँ ज़ब्त की ता'मीर का

ले गया हर सुनने वाला अपने अपने रंग में
अस्ल मतलब रह गया लेकिन मिरी तक़रीर का

ख़ून कर दिल को झलक उट्ठेगा सीना नूर से
सुब्ह का रंग-ए-शफ़क़ दीबाचा है तनवीर का

अश्क का इक क़तरा-ए-लर्ज़ां सर-ए-मिज़्गाँ हूँ मैं
जूँ गुल-ए-शम्अ-ए-सहर हूँ मुंतज़िर इक तीर का

एक लहन-ए-मुज़्तरिब है मेरी मौसीक़ी नहीं
मेरे नग़्मों में असर है शेवन-ए-दिल-गीर का

ज़िंदगी इक ख़्वाब-ए-बेदारी है बेदारी नहीं
मौत है पहला असर इस ख़्वाब की ता'बीर का

इस दो-हर्फ़ी लफ़्ज़ में दफ़्तर के दफ़्तर हैं छुपे
दिल है इक तूमार-ए-पिन्हाँ इश्क़ की तफ़्सीर का

किस से उलझेगा ये दामन ही न होगा जब 'जुनूँ'
क्यों न सामाँ ही मिटा दूँ ख़ार-ए-दामन‌‌-गीर का


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