कोई भी दुनिया में अपना हम-नवा मिलता नहीं नग़्मा-ज़न हैं सैकड़ों नौहा-सरा मिलता नहीं हाए वो दिन जब कि रोना भी नशात-आहंग था अब हँसी में भी हमें कोई मज़ा मिलता नहीं मैं मिटा क्या पास-ए-नामूस-ए-वफ़ा भी मिट गया उस के संग-ए-आस्ताँ को जब्हा-सा मिलता नहीं तेरे नग़्मों से न होगी मुझ को तस्कीं अंदलीब नग़्मा-ए-ग़म से मिरे नग़्मा तिरा मिलता नहीं शुक्र उन के इश्क़ का लाज़िम है ऐ दिल शुक्र कर दर्द तो मिलता है दर्द-ए-ला-दवा मिलता नहीं ख़ाक रहता इस हुजूम-ए-ना-उमीदी में निशाँ मिट गए सब कोई नक़्श-ए-मुद्दआ मिलता नहीं करते हो नज़्ज़ारा-ए-बिस्मिल से क्यों सर्फ़-ए-नज़र क्या शहीदान-ए-निगह का ख़ूँ-बहा मिलता नहीं उन की बज़्म-ए-राज़ में जा कर हम ऐसे खो गए कुछ पता अज़-इब्तिदा-ता-इंतिहा मिलता नहीं उस का का'बे में न मिलना ख़ैर ये इक बात है बुत-कदों में क्यों वो काफ़िर आश्ना मिलता नहीं करते हैं दुज़्दीदा नज़रों से वो बिस्मिल जिस तरह उस अदा का कोई ख़ंजर-आज़मा मिलता नहीं जम्अ हैं हर चंद सामान-ए-मसर्रत हर तरफ़ चैन इस दिल को मगर तेरे सिवा मिलता नहीं देख कर उस को जो सब्र आए तो हम जानें 'जुनूँ' सब्र जब तक है कि वो सब्र-आज़मा मिलता नहीं