लज़्ज़त-ए-कार भी हासिल नहीं बे-गारों में वो यही सोच के शामिल है ग़लत-कारों में बे-रुख़ी तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल वो तलव्वुन क्या था एक इक़रार जो ढलता रहा इन्कारों में फिर दबे पाँव वो चुनते हैं सुलगती टीसें आबले खुल के जो हँसते हैं ख़ज़फ़-ज़ारों में कोई शो'लों की लपक थी न धुएँ की लपटें जल-बुझी आब-ओ-हवा कर्ब के अंगारों में आँख तो आँख थी साँसों से शुआएँ फूटीं कोई लिपटा था घनी ज़ुल्फ़ की महकारों में वो जो इफ़्फ़त है सरापा तो मिरा इज्ज़ ब-ख़ैर पूज लूँगा उसे पाज़ेब की झंकारों में डूब कर सो गए इस बहर-ए-ख़ला में 'राही' कोई तिनका ही न था खोखले मेयारों में