लज़्ज़त सी पा रहे हैं ग़म-ए-आशिक़ी से हम कुछ वक़्त और माँगते हैं ज़िंदगी से हम जैसे थे बज़्म में न मुख़ातिब किसी से हम अफ़्साना उन से कह गए इस सादगी से हम इस दर्जा बढ़ गए हैं हद-ए-बे-ख़ुदी से हम अब तो उसी को पूछ रहे हैं उसी से हम रंगीनी-ए-फ़रेब-ए-तबस्सुम न पूछिए किस सादगी में आ गए किस सादगी से हम हुस्न-ए-तलब है ये कोई दीवानगी नहीं हाँ हाँ तुझी को माँग रहे हैं तुझी से हम देखा कभी उन्हें कभी ख़ुद पर निगाह की खेले हैं मौत से तो कभी ज़िंदगी से हम रंगीनी-ए-हयात सराब-ए-हयात है पैग़ाम सुन रहे हैं ये हर इक कली से हम ऐ दिल वो आएँ बहर-ए-'अयादत यक़ीं नहीं उलझें फ़ुज़ूल क्यों नफ़स-ए-आख़िरी से हम होती है अश्क-ए-ग़म ही से तस्कीन-ए-शाम-ए-ग़म दिल की लगी बुझाते हैं दिल की लगी से हम हैं दाग़-हा-ए-दिल की शब-ए-ग़म नवाज़िशें तारीकियों में खेलते हैं चाँदनी से हम ज़ेहन-आज़मा है राज़ नया रोज़ ऐ 'शिफ़ा' तंग आ गए हैं सिलसिला-ए-आगही से हम